Tuesday, July 17, 2018

रघुवंशम्-१.७

रघुवंशम्-1.7

श्लोकः
त्यागाय सम्भृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् ।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥1.7॥

पदविभागः
त्यागाय सम्भृत-अर्थानां सत्याय मित-भाषिणां यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृह-मेधिनाम् ॥

अन्वयः
त्यागाय सम्भृतार्थानां सत्याय मितभाषिणां यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्… ॥1.7॥

सरलार्थः
ये सत्पात्रेभ्यो दातुमेवार्थ-सञ्चयं कृतवन्तः तादृशानाम्। बहुभाषणे अनृतमपि स्यादिति हेतोर्मितमेव भाषन्ते स्म तादृशानाम्। ये धर्मविजयेन पुण्ययशोलाभाय दिग्विजयं कृतवन्तः तादृशानाम्। ये सुतार्थमेव स्त्रीपरिणयं कृतवन्तः तादृशानाम्..। क्रमेणोदाहरणानि– चतुर्थसर्गे षडशीतितम श्लोकः (86वदि), द्वादशसर्गे सत्याय प्राणांस्त्यजता नृपदशरथेन सत्यस्य पराकाष्ठा दर्शिता। चतुर्थसर्गे त्रिचत्वारिंशत्तम श्लोकः (43वदि)। प्रथमसर्गे त्रिचत्वारिंशत्तम श्लोकः (43वदि) ॥

तात्पर्यम्
दान करने के वास्ते धन इकट्ठा करने वालों का, सत्य बोलने के निमित्त थोड़ा बोलने वालों का, कीर्ति के निमित्त जीत चाहने वालों का, पुत्र के वास्ते विवाह करने वालों का.. ॥१.७॥
[(लोभबुद्धि से नहीं) त्याग (दान) करने के लिए धन को इकट्ठा करने वाले (अधिक बोलने पर उन के द्वारा असत्य बोलने की स्थिति आसकती है इस जागरूकता से) सत्य के लिए मित भाषण करने वाले, (राज्यकांक्षा से नहीं) कीर्ति के लिए ही (समरों में) विजय को चाहने वाले, (कामभाव के लिए नहीं, पितॄण को चुकाने के लिए) संतान के लिए गृहस्थ बनने वाले (ऐसे रघुवंशियों के…)]

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